शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

ग़ज़ल - किशन नादान

ओ बेखबर मेरे रहगुजर देख ज़रा
दिल ने दस्तक दी  न  जाने कब  किधर |
तेरी मुस्कुराहटों के अफसाने देखे थे हज़ार हमने
गली गली ढूंढता हूँ तुझे कभी  इधर कभी उधर ||

क्या ताउम्र कभी कोई पीता है शाकी
गमें दिल तू ही बता क्या तू भी रोता है कभी ?
महबूब की मुस्कुराहटों के बरसात में भीगता रहूँ ताउम्र
सपने संजोये थे "किशन" ने पहली मुलाक़ात में इधर ही कहीं ||

दिल में उम्मीद लिए बैठा था
की आपसे मुलाक़ात होगी |
और खुदा ने चाहा
आज मुलाक़ात हो गयी ||

नफरतों की आग में झुलस घर  मेरे  घर उनके भी 
पर किस किस को बताऊँ सूनी  हो   गयी आँगन न जाने कितनो की |
कहता है "किशन" अब हर किसी से यही
इंसानियत से बढ़कर दूजा कोई मज़हब नहीं ||

लेखक - किशन नादान
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ग़ज़ल - किशन नादान

क्यों जलाते हो घर किसी और का
इतनी तबाही तनिक तकलीफ ना हुई तेरे सीने में
कभी खुद का घर जलाकर तो देख
कितनी तकलीफ होती है बेघर सी ज़िदगी जीने में।।

एक ही जगह बैठे हम दोनों
मैं भजन गाउॅं तू पढ़ ले नमाज़
मैं भी इंसॉं तू भी इंसॉ इंसानीयत ही अपनी मज़हब
गले मिल जा आओ मिलकर बनाएॅं एक एसा समाज।।

लेखक- किशन नादान

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